राजीव शर्मा, कोलसिया
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हमने दुनिया का नक्शा बनते आैर बिगड़ते देखा
है। ज्यादा वक्त नहीं गुजरा जब हिंदुस्तान के सीने पर भी परदेसी फौज के
घोड़ों की टापें सुनार्इ देती थीं। हमने उन लोगों के किस्से भी किताबें में
पढ़े हैं जिनकी तलवारें सिर्फ बेकसूर लोगों के खून से प्यास बुझाती थीं।
मैं इतिहास में सबकुछ जानने का दावा नहीं कर
सकता लेकिन जितना जान सका हूं उसके आधार पर मुझे अतीत में दो महान घटनाएं
एेसी नजर आती हैं जब विजेता ने लाशों पर फतह नहीं पार्इ, अपनी जीत का जश्न
नहीं मनाया आैर किसी कमजोर का गला नहीं दबाया। बल्कि युद्घ जीतकर भी
उन्होंने लोगों का दिल जीत लिया।
पहली घटना है- श्रीराम की लंका पर विजय। उस
लंका पर जिसके बारे में कहा जाता है कि वह सोने से बनी थी। तब श्रीराम के
पास विशाल सेना थी, बहादुर साथी थे आैर हथियारों की भी कोर्इ कमी नहीं थी
लेकिन उन्होंने जीती हुर्इ लंका विभीषण को सौंप दी।
वे चाहते तो लंका के राजा बन सकते थे। वहां
आराम की जिंदगी गुजार सकते थे लेकिन उन्होंने लक्ष्मण से कहा कि मुझे मां
के कदमों की मिट्टी आैर मेरी मातृभूमि स्वर्ग से भी ज्यादा प्रिय हैं।
दूसरी घटना है पैगम्बर मुहम्मद साहब (सल्ल.)
के जीवन की। हिजरत के कर्इ साल बाद वे मदीने से मक्का आए थे। एक वह दौर था
जब मक्का के लोग उनकी जान के प्यासे हो गए। तब भी उन्होंने युद्घ का मार्ग
नहीं अपनाया।
उनके चाचा अबू तालिब गुजर चुके थे, उनकी
बीवी खदीजा का भी स्वर्गवास हो चुका था। मां आैर बाप ताे बहुत पहले गुजर
चुके थे। वे बिल्कुल अकेले पड़ चुके थे तब मक्का के कुरैश उनसे बदला लेने
काे तैयार हुए। वे हर कीमत पर उनकी जान लेने को आमादा थे।
एेसे में पैगम्बर मुहम्मद साहब (सल्ल.) को
अपने रब की आेर से हुक्म हुआ आैर वे मक्का छोड़कर शांतिपूर्वक मदीना चले
गए। मदीना के लोगों ने उनका दिल खोलकर स्वागत किया मगर मक्का के कुरैश यह
भी नहीं चाहते थे।
उनकी मंशा थी कि मुहम्मद (सल्ल.) को खत्म कर
दिया जाए। वे फौज लेकर मदीना की आेर चल पड़े तब अपने साथियों, उनके
बीवी-बच्चों आैर आत्मरक्षा के लिए पैगम्बर मुहम्मद साहब (सल्ल.) ने रणभूमि
की आेर प्रस्थान किया तथा वे विजयी हुए।
मक्का के लोगों ने उनके साथ जितना दुष्टता
का बर्ताव किया था मदीना के लोग उतने ही हमदर्द थे। उन्होंने हर कदम पर
उनका साथ दिया आैर कोर्इ भी संकट वे सबसे पहले खुद पर लेना चाहते थे लेकिन
मुहम्मद साहब (सल्ल.) को खुद से ज्यादा अपने साथियों की फिक्र रहती।
मुहम्मद (सल्ल.) को मक्का की धरती से भी
बहुत प्रेम था। यही वो जगह थी जहां उनकी प्यारी मां आमिना, पिता अब्दुल्लाह
के कदम पड़े थे। इसी धरती पर काबा था जहां इबादत करना उनका सबसे बड़ा खाब
था।
… आैर अपनी मातृभूमि किसे अच्छी नहीं लगती?
मदीने में उन्हें वैसी तकलीफ नहीं थी जैसी मक्का के लोगों ने दी थी। फिर भी
उनका मन हमेशा वहां जाने के लिए उत्सुक रहता था।
देशप्रेम क्या होता है? मुझे यह बताने की
आवश्यकता नहीं, क्योंकि हर देश में महान देशप्रेमी हुए हैं, अमर बलिदानी
पैदा हुए हैं। मैं पैगम्बर मुहम्मद साहब (सल्ल.) को भी उसी श्रेणी का एक
महान देशप्रेमी मानता हूं जिसने अपने वतन के लिए कर्इ कुर्बानियां दीं।
उनके कर्इ साथी जंग में शहीद हुए।
मक्का उनका घर था आैर वहां जाने का उन्हें
पूरा हक था लेकिन कुरैश नहीं चाहते थे कि वे पूरी जिंदगी में कभी वहां
लौटकर आएं। मुहम्मद साहब (सल्ल.) के पास संसाधन नहीं थे, बहुत बड़ी सेना
नहीं थी, लेकिन वे सिर्फ दो बातों के दम पर मैदान में डटे रहे। न सिर्फ डटे
रहे बल्कि दुश्मनों को शिकस्त भी दी। इनमें पहली बात थी – ईश्वर और उसकी
न्यायप्रियता पर अटूट भरोसा, और दूसरी – सच्चाई।
जब आप अपने बहादुर साथियों के साथ वापस
मक्का आए तो उन लोगों में भारी भय था जिन्होंने आपको तकलीफें दी थीं। मक्का
बिल्कुल सामने था और आप आगे बढ़ते जा रहे थे। उधर मक्का के लोगों के मन में
कई आशंकाएं थीं।
तब मुहम्मद साहब (सल्ल.) ने एक व्यक्ति अबू
सुफियान से कहा – अपनी कौम में जाओ और उनसे कहो – मुहम्मद मक्का में एक
अच्छे भाई की तरह दाखिल होगा। आज न कोई विजयी है और न पराजित। आज तो प्रेम
और एकता का दिन है। आज चैन और सुकून का दिन है। अबू सुफियान के घर में जो
दाखिल हो जाए, उसे अमान (शरण) है। जो घर का दरवाजा बंद कर ले उसको अमान है
और जो काबा में दाखिल हो जाए, उसको भी अमान है।
अबू सुफियान ने यह बात मक्का में जाकर कही
तो लोगों में खुशी की लहर दौड़ गई। मुहम्मद साहब (सल्ल.) मक्का में दाखिल
हुए। फिर आपने काबा जाने का इरादा किया। काबा की चाबी मंगाई और आप काबा गए।
काबा के बाहर मक्कावालों की भीड़ लगी थी। वे
लोग आज अपनी किस्मत का फैसला सुनने खड़े थे। तब आपने कुरैश के लोगों की ओर
नजर उठाई और पूछा, कुरैश के लोगो, जानते हो मैं तुम्हारे साथ क्या करने
वाला हूं?
सब बोले- अच्छा व्यवहार। आप अच्छे भाई हैं और अच्छे भाई के बेटे हैं।
फिर आपने फरमाया – आज तुम्हारी कोई पकड़ नहीं। जाओ, तुम सब आजाद हो।
मुहम्मद साहब (सल्ल.) ने उन लोगों को आजाद
कर दिया जिन्होंने कभी उन्हें बहुत तकलीफें दी थीं। आज आप शक्ति के शिखर पर
थे, लेकिन उन लोगों को भी माफ कर दिया जो आपको दुनिया से मिटाना चाहते थे।
युद्घ जीतकर दिल जीतने तथा शक्ति के साथ माफी के एेसे उदाहरण इतिहास में
बहुत कम मिलते हैं।
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