Thursday, 3 March 2016

“काका माला वचावा” बाजीराव के शनिवार वाडा में गूंजते इतिहास के ये तीन शब्द !

“बाजीराव ने मस्तानी से मोहब्बत की है अय्याशी नहीं ” ये डायलॉग उतना ही सुपरहिट है जितना बाजीराव का मस्तानी के प्रति प्रेम पर कितने लोग है जो इसके आगे की कहानी जानते है बाजीराव और मस्तानी की प्रेम कहानी के आगे एक और स्क्रिप्ट लिखी गयी जो बदले की भावना और सत्ता के लालच से भरी हुई है जिसने इतिहास का रुख ही बदल दिया जो शनिवार वाडा कभी बाजीराव और काशीबाई के प्रेम की दास्ताँ कहता था आज वहां अमावस्या की रात को किसी के कराहने की आवाज़े आती है l 



बाजीराव-मस्तानी


हाल ही में रिलीज हुई फिल्म बाजीराव-मस्तानी को दर्शकों ने खूब सराहा, फिल्म के किरदारों को तो पसंद किया ही गया लेकिन साथ ही साथ मराठा साम्राज्य को बुलंदियों पर ले जाने वाले बाजीराव-मस्तानी की प्रेम कहानी भी दर्शकों को छू गई। फिल्म के अंत में आप सब ने देखा होगा की किस तरह से काशी बायीं के बेटे नाना साहेब ने मस्तानी को कैद कर दिया और अंत आप सबके सामने है l अब कहानी शुरू होती है बाजीराव के वंशजो की !

शनिवारवाडा




वर्ष 1746 ईसवी में बाजीराव ने अपने महल शनिवारवाडा का निर्माण करवाया था। बाजीराव की मृत्यु के पश्चात शनिवाडा में अधिकार को लेकर लड़ाई-झगड़े शुरू हो गए थे।
शनिवार वाडा फोर्ट, महाराष्ट्र के पुणे में स्तिथ है। इस किले की नीव शनिवार के दिन रखी गई थी इसलिए इसका नाम शनिवार वाडा पड़ा। यह फोर्ट अपनी भव्यता और ऐतिहासिकता के लिए प्रसिद्ध है।  शनिवार वाडा फोर्ट का निर्माण राजस्थान के ठेकेदारो ने किया था जिन्हे की काम पूर्ण होने के बाद पेशवा ने नाईक की उपाधि से नवाज़ा था।



इस किले में लगी टीक की लकड़ी जुन्नार के  जंगलो से, पत्थर चिंचवाड़ की खदानों से तथा चुना जेजुरी की खदानों से लाया गया था। इस महल में 27 फ़रवरी 1828 को अज्ञात कारणों से भयंकर आग लगी थी।  आग को पूरी तरह बुझाने में सात दिन लग गए थे। इस से किले परिसर में बनी कई इमारते पूरी तरह नष्ट हो गई थी। उनके अब केवल अवशेष बचे है।  अब यदि हम इस किले की संरचना की बात करे तो किले में प्रवेश करने के लिए पांच दरवाज़े है।  यह किला 1818 तक पेशवाओं की प्रमुख गद्दी रहा था,जुन 1818 में पेशवा बाजीराव द्वितीय ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के सर जॉन मैलकम को यह गद्दी सौप दी और इस तरह पेशवाओ की शान रहे इस किले पर अंग्रेजो का अधिकार हो गया।   लेकिन इस किले के साथ एक काला अध्याय भी जुड़ा है। 

नारायण राव, नानासाहेब पेशवा के सबसे छोटे पुत्र थे। अपने दोनों भाइयों की मृत्यु के पश्चात नारायण राव को पेशवा बना तो दिया गया लेकिन उम्र काफी कम होने की वजह से सत्ता का संचालन रघुनाथ राव और उनकी पत्नी आनंदी को ही सौंपा गया।

 

पेशवा नाना साहेब के तीन पुत्र थे विशव राव, महादेव राव और नारायण राव।  सबसे बड़े पुत्र विशव राव पानीपत की तीसरी लड़ाई में मारे गए थे। नाना साहेब की मृत्यु के उपरान्त महादेव राव को गद्दी पर बैठाया गया। पानीपत की तीसरी  लड़ाई में महादेव राव पर ही रणनीति बनाने की पूरी जिम्मेदारी थी लेकिन उनकी बनाई हुई कुछ रणनीतियां बुरी तरह विफल रही थी फलस्वरूप इस युद्ध में मराठों की बुरी तरह हार हुई थी।  कहते है की इस युद्ध में मराठो के 70000 सैनिक मारे गए थे।  महादेव राव युद्ध में अपनी भाई की मृत्यु और मराठो की हार के लिए खुद को जिम्मेदार मानते थे।  जिसके कारण वो बहुत ज्यादा तनाव में रहते थे और इसी कारण गद्दी पर बैठने के कुछ दिनों बाद ही उनकी बिमारी से मृत्यु हो गई।
उनकी मृत्यु के पश्चात मात्र 16 साल की उम्र में नारायण राव पेशवा बने।

नारायण राव को पेशवा बनाने से काका (चाचा) राघोबा और काकी (चाची) अनादीबाई खुश नहीं थे।



 रघुनाथ राव यानि राघोबा और उनकी पत्नी के भीतर सत्ता का लालच हिलोरे मार रहा था, वे साम्राज्य की देखभाल नहीं उसे हथियाने के सपने देख रहे थे। दोनों कुछ भी करके नारायण राव को अपने रास्ते से हटाना चाहते थे। नारायण राव को पेशवा बनाने से काका (चाचा) राघोबा और काकी (चाची) अनादीबाई खुश नहीं थे। वो खुद पेशवा बनना चाहते थे उनको एक बालक का पेशवा बनना पसंद नहीं आ रहा था। दूसरी तरफ नारायण राव भी अपने काका को ख़ास पसंद नहीं करते थे क्योकि उन्हें लगता था की उनके काका ने एक बार उनके बड़े भाई महादेव राव की ह्त्या का प्रयास किया था।  इस तरह दोनों एक दूसरे को शक की नज़र से देखते थे।  हालात तब और भी विकट हो गए जब दोनों के सलाहकारों ने दोनों को एक दूसरे के विरुद्ध भड़काया। इसका परिणाम यह हुआ की नारायण राव ने अपने काका को घर में ही नज़रबंद करवा दिया।

सुमेर गर्दी: ‘नारायण राव ला धारा’

 
 
रघुनाथ राव और उनकी पत्नी इस बात से बहुत क्रोधित हुए, वे अब देर नहीं कर सकते थे, उन्होंने भील सरदार, सुमेर गर्दी को पत्र लिखकर नारायण राव को गिरफ्तार करने के लिए बुलाया।
उनके साम्राज्य में ही भीलों का एक शिकारी कबीला रहता था जो की गार्दी  कहलाते थे।  वो बहुत ही मारक लड़ाके थे। नारायण राव के साथ उनके सम्बन्ध खराब थे लेकिन राघोबा को वो पसंद करते थे।  इसी का फायदा उठाते हुए राघोबा ने उनके मुखिया सुमेर सिंह गार्दी को एक पत्र भेजा जिसमे उन्होंने लिखा ‘नारायण राव ला धारा’ जिसका मतलब था नारायण राव को बंदी बनाओ।

अनादी बायीं : ‘नारायण राव ला मारा’



लेकिन अनादी बायीं , अपने पति रघुनाथ राव से भी दो कदम आगे थी। उसके पत्र में गिरफ्तारी नहीं बल्कि नारायण राव की हत्या करने का हुक्म जारी कर दिया।
अनादि बाई को यहाँ एक खूबसूरत मौक़ा नज़र आया और उसने पत्र का एक अक्षर बदल दिया और कर दिया ‘नारायण राव ला मारा’  जिसका मतलब था नारायण राव को मार दो।

अच्छा अवसर




 सुमेर सिंह और नारायण राव के संबंध पहले से ही अच्छे नहीं थे, इसलिए सुमेर सिंह को भी बदला लेने का एक अच्छा अवसर मिल गया। पत्र मिलते ही गार्दियों के एक समूह ने रात को घात लगाकर महल पर हमला कर दिया। वो रास्ते की हर बाधा को हटाते हुए नारायण राव के कक्ष की और बढे। जब नारायण राव ने देखा की गार्दी हथियार लेकर खून बहाते हुए उसकी तरफ आ रहे है तो वो अपनी जान बचाने के लिए अपने काका के कक्ष की और “काका माला वचाव” (काका मुझे बचाओ) कहते हुए भागा। 

“काका माला वचावा” बाजीराव के शनिवार वाडा में गूंजते इतिहास के ये तीन शब्द !

“काका माला वचावा”


सुमेर सिंह ने नारायण राव पर जरा भी रहम नहीं बरता, उसने शनिवारवाडा में घुस कर नारायण राव पर आक्रमण कर दिया। नारायण राव अपनी जान बचाने के लिए महल के कोने-कोने में भागे, “काका माला वचावा” चिल्लाते हुए पर अपने चाचा के कक्ष तक पहुँचने से पहले ही वो पकड़ा गया और उसके टुकड़े टुकड़े कर दिए गए। 


इतिहासकारो में मतभेद 


 
मात्र 18 वर्ष की उम्र में नारायण राव, सुमेर सिंह की तलवार की भेंट चढ़ गए। यहाँ पर इतिहासकारो में थोड़ा सा मतभेद है कुछ उस बात का समर्थन करते है की  नारायण राव अपने काका के सामने अपनी जान बचाने की गुहार करता रहा पर उसके काका ने कुछ नहीं किया और गार्दी ने राघोबा की आँखों के सामने उसके टुकड़े टुकड़े कर दिए। लाश के टुकड़ो को बर्तन में भरकर रात को ही महल से बाहर ले जाकर नदी में बहा दिया गया।


महल में आग

 
वर्ष 1818 तक यह महल पेशवाओं के ही हाथ में रहा लेकिन वर्ष 1828 में इस महल में आग लग गई थी जिस कारण एक शनिवारवाडा का एक बड़ा हिस्सा जलकर खाक हो गया था
ये आग कैसे लगी, क्यों लगी, कोई नहीं जानता लेकिन स्थानीय लोगों का कहना है कि हर अमावस की रात इस महल से किसी की करहाने की आवाज आती है। कोई मदद के लिए पुकारता है लेकिन कौन….ये कोई नहीं जानता।

नारायण राव की आत्मा


बहुत से लोग कहते हैं कि आज भी इस महल में नारायण राव की आत्मा कैद है, जो मौत का बदला तो नहीं ले पा रही लेकिन मदद की तलाश जरूर कर रही है l कहते है की किले में उसी बच्चे नारायण राव की आत्मा आज भी भटकती है और उसके द्वारा बोले गए आखिरी शब्द “काका माला वचाव” आज भी किले में सुनाई देते है।

पारलौकिक

  
किसी समय में जो महल अपनी कारीगरी, अपनी बनावट और संरचना के लिए जाना जाता था आज वही महल अपने भीतर होने वाली पारलौकिक घटनाओं के चलते देश के भूतहा स्थानों में शुमार हो गया है।

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